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सत्य हरिश्चन्द्र
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स्वर्ण-परीक्षक जबकि स्वर्ण को, पावक मध्य तपाता है, द्वेष नहीं रखता है प्रत्युत, द्विगुण तेज चमकाता है। मैं दुर्बल अति दीन व्यक्ति हूँ, मुझमें इतनी शक्ति कहाँ ? सत्याग्रह का जो कुछ बल है, सन्तों का ही दिया यहाँ । सद्गुरु कुम्भकार से उपमित, ऊपर चोट लगाते हैं, गुप्त - रूप से फिर भी घट को, अन्दर खूब बचाते हैं। तर्जन का, संरक्षण का, यह मान्य प्रयोग हितकर है, इसमें ही तप होता मानव, यहाँ सत्य - शिव - सुन्दर है । क्षमा कीजिये, उच्छखल हूँ, वृथा आपको क्रुद्ध किया, शान्त तपस्वी जीवन को इस झगड़े में ला क्षुब्ध किया ।" देख लिया भारत का गौरव ! कितनी मृदु सज्जनता है, अपकारी के प्रति भी कितनी, स्नेहमयी भावुकता है ? सज्जन तो होते हैं चन्दन, महक न निज कम कर सकते, अंग - विभेदक ख र-कुठार का मुख सुगन्ध से भर सकते । मूल स्रोत संकट का, वह सुर, नम्र भाव से अवनत हो, आकर भूपति के चरणों में, झुका प्रेम से गद्गद हो ! "कौशलेन्द्र ! यह दोष न ऋषि का, दोष सभी कुछ है मेरा, स्वर्गलोक में आकर भी, हा दुर्मति ने मुझ को घेरा ! देवराज ने करी आपके, सत्य - धर्म की स्तुति भारी, मैंने ठीक न समझा कैसा, निकला अति पापाचारी ? सिद्धाश्रम की पुष्प - वाटिका, मैंने ही तुड़वाई थी, शान्त तपोधन ऋषि को, गर्मी मैंने ही दिलवाई थी ! क्षमा कीजिए वीर शिरोमणि ! दया कीजिए दया सदन ! लज्जित हूँ निज दुष्ट वृत्तिपर, हुआ विजित तुमसे राजन !"
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