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सत्य हरिश्चन्द्र
एक बार जब धर्म - वृत्त से दान दिया, फिर क्या लेना? शिशु-क्रीड़ा यह नहीं कि पल में देना, फिर पल में लेना !" इन्द्र देव ने कहा कि- “राजन् ! ठीक आपका कहना है, किन्तु सत्य कहते हैं ऋषि भी, अतः उचित पथ गहना है। क्या यह होगा ठीक ऋषीश्वर, राज्य - कार्य में फंस रहें, शान्त हृदय से जरा विचारें भावुकता का न मार्ग गहें।" हरिश्चन्द्र ने कहा--'आप ही बतलाएँ, अब क्या करना ? समाधान मेरा न हुआ है, नहीं सत्य से है डरना !
भावुकता का प्रश्न नहीं है, प्रश्न सत्य का अड़ता है, आँख बंद कर कुछ कर लेना, भावुकता कब ? जड़ता है।" विश्वामित्र सँभल कर बोले- "एक बात है और सुनें; मुझको आशा है अवश्य ही, अब तो मध्यम मार्ग चुनें।
मैं अपने कर से रोहित को, राज • मुकुट पहनाता हूँ, एक छत्र कौशल जन - पद का, राजा आज बनाता हूँ ! रोहित बालक, अस्तु न जब तक, कर सकता है राज्य-वहन, तब तक आप बनें अभिभावक, इतना तो पालिए कहन !"
इतना सुनना था, जनता की, गर्ज उठी कल - कल धारा, ठीक - ठीक है-कहकर लगने लगा, जोर से जय नारा । हरिश्चन्द्र ने कहा-"अयोध्या मैं तब तक कब जा सकता ? ब्राह्मण और श्वपच का सब ऋण जब तक न चुका सकता।"
विप्र और भंगी ने सादर कहा- "हमारा क्या बन्धन ? हमको कुछ भी नहीं चाहिए, कृपा चाहिए बस राजन् !" वर्जन करते भी सुरपति ने, लक्षाधिक वैभव दीना, हरिश्चन्द्र - तारा रानी को, मुक्त दासता से कीना !
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