Book Title: Satya Harischandra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 188
________________ सत्य हरिश्चन्द्र १७७ यही प्रार्थना, आज आप से, दुराचार का त्याग करें, पूज्य पिता का पथ अपनाएँ, सदाचार - अनुराग करें !" ब्राह्मण -सुत ने करी प्रतिज्ञा, दुराचार का त्याग किया, सदाचार सादर अपना कर, जीवन का पथ पलट दिया ! सज्जनता इसको कहते हैं, अपकृत पर भी द्वष नहीं, प्रेमामृत से भरा हृदय है, दुर्विचार का लेश नहीं ? कौशिक ऋषि ने पुनः अन्त में कहा-"अयोध्या चलिएगा, राज्य - भार वापस करता हूँ, मुझे मुक्त अब करिएगा। मैं तो भूल गया सब जप-तप, फँसा राज्य की उलझन में, आध्यात्मिक जीवन का होता पतन, वैभव-सुख वर्तन में !" देवराज ने भी कौशिक का, किया समर्थन आग्रह से, "क्षमा कीजिए अब तो ऋपिजी, दुःखित पूर्व दुराग्रह से । देख रहे हैं सत्याग्रह ने, किया हृदय का परिवर्तन, कौशिक से क्रोधांध भिक्षु का बना शान्त इस क्षण जीवन !" भूपति बोले---"राज्य दान में दिया न वापस हो सकता, हरिश्चन्द्र अपनी मर्यादा, कभी नहीं यों खो सकता ! सत्य धर्म की रक्षा के हित, क्या - क्या कटु संकट झेला ? आज राज्य अपना कर, कैसे करू सत्य की अवहेला ?" कौशिक ने सस्नेह गिरा में कहा- "आपको क्या उलझन ? राज्य वस्तुतः लिया न मैंने, यह तो था खाली तर्जन ! सत्य धर्म से तुम्हें डिगाने, भर को थी सारी माया, अब सब झगड़ा खत्म हो गया, सत्य नहीं डिगने पाया !" राज्य लिया हो तुमने ऋषिवर!क्यों न किसी भी कारण से? पर मैंने तो दान दिया है, निश्छल, शुद्ध - सत्य मन से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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