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१९१०
सत्य हरिश्चन्द्र "देवी ! यह कर्मों की लीला, इस पर किसका वश चलता ? जो कुछ लिखा कर्म में मिलता, जरा नहीं अणुभर टलता। जो बीता, सो बीत गया, अब बीते पर पछताना क्या ? बोलो कफन नहीं देती तो, सुत-शव नहीं जलाना क्या ?" "प्राणेश्वर ! कुछ तो निज सुत का, स्नेह हृदय में रखिएगा, आप पिता हैं कुछ तो गौरव, अपने पद का रखिएगा। कैसा है अन्याय, पिता ही, कफन पुत्र का मांग रहे, कफन नहीं है, फिर भी अपना, हठ न व्यर्थ का त्याग रहे । देख रहे हैं कहाँ कफन है ? दुखिया को अब रहने दो, क्षमा माँगती हूं, प्रिय सुत का, दाह-कर्म अब होने दो !" तारा विवश रो रही, भूपति हरिश्चन्द्र भी रोते हैं, दोनों ही मन पर हिम गिरि-सा भार शोक का ढोते हैं ।
हरिश्चन्द्र बलपूर्वक अपने, आँसू रोक, पुनः बोले, कैसी विकट परिस्थिति है, फिर भी न धर्म - पथ से डोले । पाठक ! मेरे कलियुग - वासी सोच रहे हैं, यह क्या है ? व्यर्थ कदाग्रह भूपति करते, . इसमें भला हजं क्या है ? हरिश्चन्द्र पर धर्मवीर हैं, कहो धर्म कैसे छोड़े ? न्याय-नीति का रक्षक है, फिर न्याय - नीति कैसे तोड़े ? धर्म वही है, जो संकट की, घड़ियों में भी भंग न हो ? सुख की मस्ती में तो किसको, कहो धर्म का रंग न हो ?
गीत
मनुष्य क्या, अदृष्ट को जो ठोकरें न सह सके,
मनुष्य क्या, जो संकटों के बीच खुश न रह सके।
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