Book Title: Satya Harischandra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 179
________________ १६८ सत्य हरिश्चन्द्र हाय ! आज से पुत्रवती मैं, हुई निपूती - हत्यारी, पुत्रवती माताएँ मुझसे, घृणा करेगी अति भारी !" हरिश्चन्द्र भी उधर पुत्र को, दशा देखकर रोते हैं, ले कर लाश गोद में, आँसू बरसा उसे भिगोते हैं। "हा प्रिय रोहित ! आँख बन्द कर क्या सपना-सा देख रहे, बोलो, बोलो पिता तुम्हारे, प्यारे तुम्हें परेख रहे । रूठ रहे हो, क्या माता ने, आज तुम्हें कस कर डाँटा, क्या सचमुच ही किसी भयंकर, विषधर ने तुमको काटा ? आयुष की रेखा तो इतनी लंबी, कैसे मर सकते ? ऋषियों की वाणी को, तुम-से भद्र न मिथ्या कर सकते ? कैसा सुन्दर मुखड़ा? कैसी, कमल - सदृश आँखे प्यारी, भुज प्रलम्ब, वक्षस्थल विस्तृत, आनन · चन्द्र मनोहारी ! क्या आँखें, इस मधुर मूर्ति को, फिर न देखने पाएँगी, शोक-विकल नित आँसू बरसा, क्या अन्धी हो जाएँगी ! मरने की मेरी वारी है, तुम क्यों पुत्र वृथा जाते ? आये ही थे यदि इस जग में, कुछ तो खेल दिखा जाते ! जप, तप, दान, सत्य क्या मेरा, यों ही निष्फल जाएगा, क्या अधर्म के आगे मेरा, दिव्य धर्म गिर जाएगा ! तारा ! बोलो, अब रोहित के विना, जगत में क्या जीना ? हम भी उसी मृत्यु के मुख में जाएँ, जिसने सुत छीना ?' भूपति उन्मादी-से सहसाा, खड़े हो गए मरने को, अन्तः स्फुरणा ने झट रोका, सत्य धर्म दृढ़ रखने को ! "अरे, अरे ! क्या करता हूँ मैं ? कुछ भी होश न हा मुझको, यह क्या मैंने पाप विचारा? क्या शैतान लगा मुझको ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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