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सत्य हरिश्चन्द्र
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मनुष्य क्या, तूफान से जो क्षुब्ध भीम - सिन्धु में,
उठा के शीश वेग से न लहर बन के बह सके। मनुष्य क्या, जो चमचमाते खंजरों की छाँह में,
हाँ, मुस्करा के, गर्ज के न सत्य बात कह सके । मनुष्य क्या, जो रोते - रोते चल बसे जहान से,
दिखा प्रचण्ड आत्म-बल न भीष्म राह गह सके । मनुष्य क्या, जो वासना का पुष्पहार पा 'अमर' ।
हिमाद्रि शृंग से भी ऊँचे अपने प्रण से ढह सके ! वीर पुरुष की संकट में भी धर्म - भावना बढ़ती है, उल्टी करने पर भी अग्नि - ज्वाला ऊपर चढ़ती है। मामूली लालच की खातिर, धर्म नष्ट करने वाले, देश, जाति, औ' धर्म सभी को धोखा नित देने वाले ! जरा देख लें हरिश्चन्द्र को, कैसे सच पर खड़ा हुआ ? कौन देखता है?फिर भी किस भांति धर्म पर अड़ा हुआ ? "तारा ! मन को शान्त बना कर अटल,अचल,दृढ़,धीर रहो, विजय धर्म की होती है, बस आज परीक्षा, बीर रहो !
पत्थर मैं हूँ नहीं, पुत्र का, दर्द मुझे भी गुरुतर है, किन्तु सत्य की रक्षा का भी, देवी ! यही शुभ अवसर है। स्वामी की आज्ञा है, आधा कफन लिए बिन दाह न हो, कैसे आज्ञा भंग करूं मैं, प्रिये ! संभल, गुमराह न हो।
जिसके लिए राज्य तज, तुमको बेच, श्वपच का दास बना, कैसे - कैसे भीषण संकट सहे, विपद का जाल तना ! उसी धर्म को, आज आध गज, कपड़े पर न छुड़ाओ तुम, प्राणों से भी प्यारी मेरी, मर्यादा न तुड़ाओ तुम ।
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