Book Title: Satya Harischandra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 177
________________ १६६ सत्य हरिश्चन्द्र "हा भगवन् ! मैं क्या सुनती हूँ, निष्ठुर हैं पति प्राणेश्वर, और विपद चाहे कितनी हो किन्तु न निन्दित हों प्रियवर !" . पति की निन्दा सुन न सकी, गंभीर उष्ण स्वर में बोली, जैसे ऋद्ध सिंहिनी गर्जे, लगते ही तन में गोली ! . "सावधान ! मरघट के रक्षक ! क्यों कलुषित जिह्वा करते? विना किसी को जाने - बूझे, क्यों असत्य निन्दा करते ? तुम न जानते मेरे जीवन - प्राण, सत्य के पालक हैं, कर सर्वस्व निछावर जग में, पुण्य - धर्म संचालक हैं । सत्य धर्म की रक्षा के हित, राज्य त्याग संकट भोगा, वन्दनीय, महनीय जगत में, ऐसा और न जन होगा ! मुझको मेरे स्वामी ने, किस संकट में पड़कर छोड़ा? पर के हाथ सौंपते मुझको, कैसे अपना मन तोड़ा? आता है जब दृश्य याद वह, दुःख भयंकर होता है, घंटों ही दिल तड़प-तड़प कर सिसक-सिसक कर रोता है।" भूपति, इतना सुनते ही बस, चमक उठे उद्भ्रान्त हुए, बिजली - सी दौड़ी सब तन में, प्राण शुष्क - उत्क्रान्त हुए। "हैं ! हैं !! वह है कौन ? सत्य के लिए, राज्य जिसने त्यागा, संकट में पड़, पर के हाथों, तुमको भी जिसने त्यागा। बोलो, बोलो, जल्दी बोलो, कौन तुम्हारे प्रिय पति हैं ? सुत - पत्नी का परित्याग कर, रहे सुदृढ़ प्रग के प्रति हैं । क्या तुम ही, हतभाग्य, अयोध्या-पति को रानी तारा हो, क्या तुम ही ब्राह्मण के हाथों, बिकी किंकरी तारा हो। क्या यह मृत शिशु. उसी अभागे, हरिश्चन्द्र की सन्तति है, क्या सचमुच ही सूर्यवंश के, गौरव को यह दुर्गति है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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