Book Title: Satya Harischandra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 172
________________ सत्य हरिश्चन्द्र १६१ पति-प्रेम की भी सीमा है, तुमने तो आश्चर्य किया, एक अपरिचित ब्राह्मण हाथों हा, अपने को बेच दिया ! जिन सुकुमार करों से गूंथी नहीं पुष्प की माला-सी, हन्त ! उन्हीं से बर्तन मलती आज रंक की बाला - सी !" "रोहित, प्यारे रोहित ! तुम हो कहाँ ? कष्ट क्या पाते हो ? सूर्य वंश के तिलक आज क्या तुम भी दास कहाते हो ? शत-शत दासी जिसको अपने हाथों पर पुलकित रखतीं, जरा-जरा-सी सर्दी - गर्मी की भी थीं चिन्ता करतीं । आज वही युवराज क्षुधा से पीड़ित ठोकर खाता है, जरा-जरा-सी भूलों पर नित सो सो गाली पाता है ! हम पति पत्नी, सत्य धर्म के लिए बिके, संकट पाया, भाग्य - सर्प से दष्ट तनय तू वृथा साथ में दुःख पाया ।" . "प्रभो ! प्रभो ! क्या मेरे मुख से निकला शब्द अमंगल का, रोहित रहे सर्वथा रक्षित, जीवन धन मुझ निर्बल का ।" भूप जरा यों स्तब्ध हुए, बस वाम नेत्र सहसा फड़का, वज्र ध्वनि-सी हुई हृदय में भय से वक्षस्थल धड़का | - "अरे अमंगल शकुन हुआ क्यों ? अभी और क्या होना है ? खड़ा हुआ हूँ अन्तिम हद पर, मरण शेष अब होना है ! भगवन् ! मेरा सर्वनाश हो, मृत्यु अभी बस हो जाए, एक सत्य हां, रहे सुरक्षित, वह न कलंकित हो पाए ! " Jain Education International इतने में ही नारी का स्वर, दिया सुनाई क्रन्दन - मय, हरिश्चन्द्र भट चौंके उनका हृदय हुआ, बस रोदन - मय । " अरे भयंकर अर्धरात्रि है, घन का घोर उपद्रव है, मरघट में नारी क्यों रोती ? रौद्र कर्म का ताण्डव है ।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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