Book Title: Satya Harischandra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 173
________________ १६२ सत्य हरिश्चन्द्र हरिश्चन्द्र रोदन की ध्वनि पर कदम बढ़ाए जाते हैं, ऋन्दन के अति करुण वचन सोत्कम्प श्रवण में आते हैं । "हा हा पुत्र, वत्स, हा लालन ! मुझे छोड़ कर कहाँ चला ? मुझ दुखिया के एकमात्र धन, तुझको किसने कहाँ छला ? गई मोहक वाणी ? अरे, हुआ क्या तेरा हँसना ? कहाँ तनिक बोल, मैं बहा रही हूँ, कब से आँखों का पानी ! आज विवर्ण वदन क्यों तेरा ? तेज - हीन कंचन तन है, शुष्क अधर सम्पुट हा कैसा ? नहीं बोलता उन्मत है ! सींचा जिसके कुसुम गात को रक्त बिन्दु दे छाती पर, निर्मम होकर चढ़ा सकूंगी उसे चिता पर अब क्यों कर !" गीत तू कौन-सी दुनिया में मेरे लाल है, आजा ! रोते हुए नयनों को मेरे हँसना सिखा जा ! दिल ढूंढ रहा है कि मेरा लाल कहाँ है ? थोड़ी सी झलक देके इसे धीर बंधा जा ! - दुनिया में तू ही था इक मेरा सहारा, अब कैसे मैं जीऊँ, मुझे यह तो बता जा ! ऐ चाँद ! तेरे विन मेरी दुनिया में अंधेरा, उजड़ी हुई दुनिया को मेरी फिर से बसा जा ! हरिश्चन्द्र तो अभी न समझे, किन्तु आप तो परिचित हैं, कौशल की सम्राज्ञी तारा, पुत्र-शोक से दुःखित है । हरिश्चन्द्र सोचते हृदय में – “अरे कहाँ में जाता हूँ, पुत्र शोक सन्तप्त विकल अबला को, हाय सताता हूँ ! · Jain Education International • For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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