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सत्य हरिश्चन्द्र
१५७ न्याय-नीति उपकार करो जग, युग - युग तक यश गाएगा, माया ढलती - फिरती छाया, नाम अमर हो जाएगा ! हरिश्चन्द्र तारा को देखो, दुनिया कैसे यश गाती ? लाख - लाख हो चुके वर्ष हाँ, फिर भी नहीं भूला पाती !
गीत
अरे, ओ अमीरो ! कहाँ सो रहे हो ?
चलो सर झुका कर, अकड़ क्यों रहे हो ? मिले चन्द पैसे तो दुखियों को सुख दो,
विलासों में जीवन को क्यों खो रहे हो ? सता कर किसी को मिलेगा क्या तुमको,
वृथा पथ में काँटे - जहर बो रहे हो ? गरीबों पे हँसना, यह हँसना नहीं है,
समझ लो कि अपने पै तुम रो रहे हो ? भला कैसे होगा तुम्हारा अगाड़ी ?
_ 'अमर' पाप की गाँठ क्यों ढो रहे हो ? आओ पाठक, चलें हमी बन सदय पास दुखियारी के; देखें धैर्य, सत्य - बल, साहस, उस अतीत की नारी के ! तारा को कर्तव्य - पूर्ति का ध्यान जगा दिल के अन्दर, साहस - पूर्वक रोहित शव को चली उठा निज कंधे पर । अन्धकार है, ऊँचा - नीचा, नहीं दृष्टिगत होता है, ठोकर लगती कदम - कदम पर सब तन कंपित होता है। चलते - चलते ज्यों ही मरघट - भूमि दिखाई पड़ती है, आँखों से आंसू की धारा झर - झर, झर • झर झरती है ।
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