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सत्य हरिश्चन्द्र
तारा को भोजन भी पूरा नहीं प्रथम - सा मिलता है, 'क्षुधा-विवश हो स्वयं झुकेगी,' कामी - नीच समझता है । बुद्धिमती तारा पर इसका, असर भला क्या होना था ? मूर्खराज को व्यर्थ पाप का, भार शीष पर ढोना था। राज्य-त्याग से दुःख-सिन्धु को जिसने प्रमुदित पार किया, वह तारा क्या आज कष्ट से भूलेगी निज धर्म - क्रिया ? रूखा - सूखा थोड़ा - सा भी जो कदन्न रानी पाती, रोहित को भरपेट खिलाकर, बचा-खुचा फिर खुद खाती। रोहिताश्व अब समझ चला था, माता से आग्रह करता, माता कहती- 'पुत्र न खाऊँ उदर शूल पीड़ा करता।' बहुत बार तो बिल्कुल भूखी रह कर काम किये जाती, बाहर काम, हृदय में प्रभु के स्तुति - गुण गान किये जाती।
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