________________
सत्य हरिश्चन्द्र प्रतिदिन के अनुसार एक दिन, रोहित ने की वन - यात्रा, सन्ध्या को भोजन न मिला था, लगी भूख थी अति माना। आस-पास के साथी शिशु भी, चले बना खासी टोली, लहरों की मानिंद उछलते, चहक ते नव - नव बोली । वन में दूर आम्र का सुन्दर, वृक्ष फलों से लदा हुआदेखा तो बच्चों के दिल में, अकस्मात मुद बड़ा हुआ। रोहित चढ़ने लगा वृक्ष पर, दिया दिखाई, इक विषधरलिपट रहा था तरु-स्कन्ध से, बालक काँप उठे थर-थर !! रोहित निर्भय तना खड़ा था, कहा-"अरे, विषधर जाओ, यह न तुम्हारा खाद्य, हमारा भोजन है, मत ललचाओ !" रोहिताश्व जब हुआ अग्रसर, सर्प भयंकर फुफकारा, निर्भय क्षत्रिय वीर - पुत्र था, डरता क्या भय का मारा? आओ बच्चो, चूहे की भी खड़ - खड़ से डरने बालो, रोहित भी है बन्धु तुम्हारा, वीर - धर्म की शिक्षा लो। यह भी क्या जीवन है? हरदम काँपा करते हो थर - थर, जरा अँधेरे में रस्सी भी, तुमको दिखती है विषधर । माताएँ जो भूत - प्रेत की, भीति तुम्हें दिखलाती हैं, झूठे भ्रम में तुम्हें फँसा कर, कायर - भीरु बनाती हैं। सावधान हो जाएँ साहस, अब अति साहस होता है, निर्भयता के साथ मेल अब, नासमझी का होता है । रोहित ने विषधर को कर से, पकड़ दूर करना चाहा, विषमय-दश नाग ने मारा, बालक चीख उठे हा ! हा !! रोहिताश्व विष - जर्जर हो कर, पड़ा भूमि पर चिल्लाया, "अरे हुआ क्या? बड़ी विक्ट है, भाग्य तुम्हारी, हा माया !
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org