________________
१५४
तारा ने जब वचन
किन्तु भाग्य विपरीत जान कर, धीरज धर कर "जो होना था हुआ, किन्तु अब क्या करना है, आप हमारे स्वामी हैं, उपचार योग्य कुछ
सत्य हरिश्चन्द्र
सुने, तो मर्मान्तक पीड़ा पाई,
मैं नारी परिचित न किसी से कहाँ किधर जाऊँ - आऊँ ? आप संग में चलें कृपा कर, दर्शन रोहित का पाऊँ !" पत्थर पर कुछ असर भले हो, किन्तु दुष्ट पर कभी नहीं, दीन प्रार्थनाएँ तारा की, ब्राह्मण के प्रति विफल रहीं ।
"क्या उपचार? मर गया वह, तो मृत भी क्या जीवित होते ? हम स्वामी, दासों के पीछे, द्रव्य नहीं अपना खोते ! मुझे कहाँ अवकाश, चलूँ, जो तेरे साथ व्यर्थ कानन, लंबी बातें करने से क्या, दुखता नहीं कहो आनन ?
बतलाई ।
बतलाएँ ?
करवाएँ !
जाओ जल्दी, काम पड़ा है, दाह - कर्म कर झट आना, खबरदार ! मृत को न नगर में, वापस मेरे घर लाना !” वृद्ध विप्र था सदय, पुत्र के डर से, किन्तु नहीं बोला, तारा के अणु-अणु में धधका, शोक हुताशन का शोला !
मन मसोस कर खड़ी हुई, चल पड़ी अकेली ही वन को, मूच्छित होकर पड़ी भूमि पर देख पुत्र के मृत तन को । वन - समीर से चेतन होकर लगी रुदन करने भारी, मुच्छित सुत को उठा गोद में, बिलख रही है दुखियारी !
,,
Jain Education International
"बेटा, आँखें खोलो, देखो, जननी कब से रोती है, रूठ रहे हो क्या तुम मुझ से, ठीक नहीं हठ होती है । हा हा ! इतना प्यार पलक में तूने कैसे ठुकराया ? माता बिलख रही है तूने, स्वर्ग लोकपथ अपनाया ।
·
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org