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सत्य हरिश्चन्द्र
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तारा भी घट ले गंगा के, तट पर जल भरने आई, सहनशीलता पति - दर्शन का, स्वर्ण योग देने आई। सच्चा हो यदि प्रेम हृदय में, तो प्रेमी मिल जाता है, प्रेमी तो क्या, ईश्वर का भी, मानव दर्शन पाता है। पति - पत्नी ने सम्मुख देखा, एक - दूसरे को ज्यों ही, हृदय, हर्ष के सुधा - श्रोत से, छलक उठे सहसा त्यों ही। दो प्रेमी के मिलन - दृश्य का क्या कवि वर्णन कर सकता? स्वतः विचित्रित इन्द्र धनुष में, रंग कोन है भर सकता ? एक - दूसरे के सुख - दुःख की, दोनों ने पूछी बातें, हरिश्चन्द्र ने अपनी बीती, बतलाई पिछली बातें। पति - पत्नी दोनों ही खुश हैं, अपने आज्ञा - दाता पर, "धन्यवाद है, कृपा तुम्हारी, पाया अति सुन्दर अवसर ।" दोनों ने सोचा- "अब ज्यादा देरी करना ठीक नहीं, स्वामी को धोखा देना है, धर्म बिगड़ना ठीक नहीं। आज मिला जैसे यह अवसर, वह भी इक दिन आएगा, बन्धन-मुक्त बनेंगे, सुख का, सुधा - सिन्धु लहराएगा।" रानी को तो और स्त्रियों ने, घट सस्नेह उठा दीना, राजा भंगी बन कर आए, कौन स्पर्श से हो हीना । जल भरने का यह पहला ही अवसर था, अभ्यस्त न थे, आभिजात्य के मिथ्या - भ्रम में फंसे लोग तैयार न थे। रानी बोली-'नाथ ! समस्या उलझ रही है अति भारी, दास्य-भाव के कारण अपनी जाति बनी न्यारी - न्यारी । उठवा देती, किन्तु विप्र का धर्म न आज्ञा देता है, लोक • भीति है अड़ी हुई, पर हृदय तरंगें लेता है ।
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