Book Title: Satya Harischandra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 145
________________ सत्य हरिश्चन्द्र गीत सत्य के पथ पर खड़ा हूँ, सत्य के मैदान में, भ्रान्त हो सकता नहीं हूँ, सत्य के श्रद्धान में । राज-शासन, वीर सेना, कोष तो क्या चीज है ? प्राण की भी भेंट दूं मैं, सत्य के सम्मान में । सत्य ही भगवान् है, भगवान् ही तो सत्य है, भेद अणुभर भी नहीं है, सत्य औ' भगवान् में । चाँद, सूरज और तारे यह मही-मण्डल अखिल, ___ सत्य के कारण हैं, वर्ना नष्ट हों इक आन में । आदमी बन कर नहीं जो सत्य का सेवक बना, फर्क कुछ भी तो नहीं है उसमें औ' शैतान में । आफतों के वज्र सिर पर रात-दिन गिरते रहें, आ नहीं सकती लचक दृढ़ सत्य के अभिमान में । "भगवन् ! बार - बार क्या कहते ? सौ बातों की बात यही, भू, नभ सीमा भले त्याग दें, किन्तु सत्य मैं तज नहीं। राज्य-त्याग वन-वन में भटका, बिकी आज प्यारी तारा, वही सत्य दूं छोड़ कि जिसको खातिर भोगा दुखः सारा । अभी ठहरिए, रवि छिपने से पहले ही ऋण चुकता है, पत्नी के पथ पर अब पति भी दास रूप में बिकता है !" हरिश्चन्द्र ने तारा का वह त्यक्त घास सिर पर रखा, खड़े हो गए बिकने को, निज सत्य किन्तु दृढ़तर रखा। आते - जाते लगे पूछने मानव- "कौन ? कहाँ रहते ? क्या कारण ? किस लिए दासता स्वीकृत कर संकट सहते?" राजा बोले-. "एक शब्द में परिचय है, मैं विकता हूँ, कौन, कहाँ से, क्या लेना है ? झंझट व्यर्थ न करता हूँ ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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