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सत्य हरिश्चन्द्र
१३५ दास आपका पुरुषोचित सत्कार्य सभी कर सकता है, मुहर पाँच सौ देकर मुझको कोई क्रय कर सकता है ।" मूल्य अधिक बतलाकर सब जन एक ओर को चल देते, हरिश्चन्द्र अति खिन्न भाव से बार
बार रवि लख लेते ।
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"आज सूर्य - छिपने से पहले क्या न चुकेगा मेरा ऋण,
हरिश्चन्द्र की कठिन परीक्षा, समय जा रहा है क्षण-क्षण ! " भंगी एक दूर से यह सब दृश्य देखता था प्यारा, "भंगी के कर कौन बिकेगा, अतः मौन था बेचारा ।"
निराशा - वाणी तो आगे आया,
डरते भूपति से आ बतालाया ।
हरिश्चन्द्र की सुनी नम्र भाव से डरते "वीर आप हैं बड़ी विपद में, काशी में बिकने आए, किन्तु खेद है, काशी - वासी तुमको नहीं परख पाए । क्षमा करें, मैं भंगी हैं, क्या मेरे घर पर आएँगे, आज्ञा हो तो अभी पांच सौ मुहरें मुनिवर पाएँगे ! " भंगी की सुन बात हृदय में रानी की गूँजी वाणी, ब्राह्मण तो क्या भंगी के कर बिक जाती वह कल्याणी !
"हाँ मैं प्रस्तुत हूँ, ले चलिए, ले चलते हों आप जहाँ, भंगी हो अथवा ब्राह्मण हो मानवता में भेद कहाँ ?" कौशिक उसे देखकर बिगड़े - "दुष्ट कहाँ से यह आया, अभी काम बन जाता मेरा भूपति था बस घबराया ।"
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भूपति से बोले - "रे राजन् ! क्या करता है सोच जरा, भंगी के हाथों बिकता है, देख स्व- कुछ की ओर जरा ।" "भगवन् ! क्या है जात-पाँत के बन्धन की मर्यादा में, मानव की बस मानवता है, शुभाचरण की सीमा में ।
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