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सत्य हरिश्चन्द्र दुनिया है रोना - हँसना,
क्या मिलन-विरहमें फँसना, ममता के बन्धन झठे, मोह न लाना, देवी !
जब तक है सूर्य गगन में,
जब तक है मेरु धरनि में, तब तक तू सत्य धर्म की चमक दिखाना, देवी !
ब्राह्मण की सेवा करना,
सुख-दुःख का ध्यान न धरना, सेवा के पथ में आकर फिर क्या लजाना, देवी !
यही है आशीष मेरी,
भूल मैं याद न तेरी, जीवन के कण · कण में तव प्रेम बसाना, देवी ! साश्रुपात सोल्लास भक्ति से कर पति - चरणों में वन्दन, रोहिताश्व को बिठा गोद में बार - बार करती चुम्बन ! बात सोच सूर्यास्त समय की तारा जल्दी चलती है, मातृ - स्नेह में पले कुवर से शीघ्र न छुट्टी मिलती है। "बेटा ! दुखियारी माता के पास कहो अब क्या लोगे ? इधर दुःख में मैं तड़पूगी, उधर व्यथित तुम तड़पोगे । भाग्यहीन जननी को भूलो, समझो थी न कभी माता, महाराज ही अब तो तेरे केवल जग में हैं नाता ।" छुड़ा निजाञ्चल रोहित से झट चली अयोध्या की रानी, रोहित माँ-मां करता दौड़ा, समझ कहाँ, शिशु अज्ञानी ! हरिश्चन्द्र ने कहा- "पुत्र ! तुम माता के ही संग जाओ, भाग्य हीन मेरे संग रह कर, व्यर्थ कष्ट तुम क्यों पाओ ?" तारा ने समझाया-- "बेटा! मेरे साथ कहाँ जाना, मैं दासी हूँ, निशि • दिन श्रम ही करना, श्रांति नहीं पाना ।
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