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सत्य हरिश्चन्द्र
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"नाथ ! दुःख का समय नहीं है, सत्य सामने खड़ा हुआ, रवि अस्तंगत होने जाते, अभी अर्ध ऋण अड़ा हुआ। ऋण न चुका, यदि रवि अस्तंगत हुए, सत्य का क्या होगा? किया - कराया चौपट होगा, सत्पथ से गिरना होगा ।
आँखों के खारे पानी से किसका जग में काम चला ? वज्र - हृदय मानव ही देते हैं संकट की शान गला ? मेरे दासी बनने से क्यों दुःख आपको होता है ? जीवन में अभिमान सत्य की निश्चलता को खोता है ।
रानी या दासी, यह सब तो माया - जाल बिछा ऊपर, मानव तो बस मानव ही है, नहीं और कुछ इधर - उधर । यह तो ब्राह्मण हैं, मैं बनती दासी नीच श्वपच की भी, सत्य - पूर्ति के लिए न परवा ऊँच - नीच की रत्ती भी। आप पुरुष हैं, वर क्षत्रिय हैं, बस अधीर मत बनिएगा, मोह दूर कर निज अन्तर में नाद सत्य का सुनिएगा।" तारा के शब्दों से व्याकुल हृदय भूप का सबल हुआ, हटा शोक का प्रबल प्रभंजन, सत्य सर्वथा अचल हुआ !
"तारा तुम हो वज्र प्रकृति को, अबला होकर भी सबला, विकट भयंकर संकट में भी तुम न कभी होती विकला ! मेरे सत्य - धर्म की रक्षा आज तुम्हीं ने की देवी, पतित सत्य से हो जाता, यदि तुम न धैर्य रखती, देवी ! 'आधा ऋण मुझ पर है, आधा कष्ट बटाऊँगी मैं भो,' तुमने जो कुछ कहा, सत्य कर दिखलाया संकट में भी । अब क्या ऋण की फिक्र, तुम्हारा पथ ही मेरा भी पथ हो, विदा सहर्ष तुम्हें देता हूँ, सत्य तुम्हारा रक्षक हो !"
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