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सत्य हरिश्चद्र
अगर अभी यह बिक जाये तो बस अच्छा ही हो जाये, अर्ध दक्षिणा के फन्दे में फंसा भूप घबरा जाये ! आप स्वयं माफी माँगेगा, झगड़ा ही मिट जायेगा, और मुझे क्या लेना है ? बस नाम अटल रह जायेगा।" वृद्ध विप्र से कहा गर्ज कर--"अरे पांच सौ ही दे दे, विकट परिस्थिति में उलझा हूँ, आधी तो सुलझाने दे।" ब्राह्मण ने सानन्द पांच सौ मुहरें कौशिक को गिन दी, कौशिक ने लेकर निज कर की झोली में झटपट रख ली। तारा ने पति के चरणों में अन्तिम बार प्रणाम किया, आँखों के पथ पर आँसू का रूप, प्रेम ने धार लिया। "प्राणनाथ ! दीजिए अनुज्ञा, अब यह दासी जाती है, दयामूर्ति ब्राह्मण की सेवा - विधि का पथ अपनाती है ! मेरी चिन्ता कुछ न कीजिये, जैसे भी हो रह लगी, नाम आपका रटते • रटते सब - कुछ संकट सह लूगी। नारी का सर्वस्व, देव, सौभाग्य जगत में पति ही है, भय न, तदर्थ देह हो अर्पण जीवन की संगति ही है। आज आप से होता है विच्छेद, मुझे भीषण दुःख है, किन्तु ध्येय के पालन के प्रति गौण जगत का दुःख-सुख है। विदा दीजिये, चलती हूँ अब, पता नहीं कब मिलना हो ? आशीर्वाद यही दें बस, अब सत्पथ से न फिसलना हो।" हरिश्चन्द्र सुन जड़ीभूत गिर पड़े भूमि पर मच्छित हो. यह प्रसंग है ऐसा ही, इससे नहीं धीरता लाञ्छित हो। तारा ने झटपट अंचल से पवन करी, भूपति चेते, उठे साश्रु तारा - तारा का नाम एक स्वर से लेते ।
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