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सत्य हरिश्चन्द्र
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"दासी की इच्छा हो जिनको ले लें दासी बिकती है," तारा यह आवाज लगाती है, पर जरा झिझकती है। बूढ़े ब्राह्मण ने सोचा-"यह उच्च वंश की नारी है, विपद्-ग्रस्त है, इस पर कोई संकट अति ही भारी है।" तारा से आकर पूछा-"हाँ, बेटी ! यह क्या झंझट है ? क्या विपत्ति है?क्यों बिकती हो?क्या कुछ अंदर खटपट है?" "खटपट कुछ भी नहीं,पिताजी! ऋषि का ऋण ही देना है, मेरे पति से इन ऋषिवर को सहस्र स्वर्ण धन लेना है।" "आप कौन हैं? नाम गोत्र क्या ? कैसा ऋण है मुनिवर का, समझ न सकता मैं यह लीला, भेद खोलिये अन्तर का।" "नाम - गोत्र से क्या लेना है ? हम विपत्ति के मारे हैं, मात्र-दक्षिणा ऋण है पति पर, वचन न अपना हारे हैं !" "सहस्र दक्षिणा बहुत बड़ी है कैसे दी तुमने बेटी ? और दक्षिणा क्या ऐसी है, जिस पर तुम बनती चेटो !" "और नहीं कुछ कह सकती हूँ, कुल - गौरव का बन्धन है, लेना है तो शीघ्र लीजिये, हाथ जोड़ अभ्यर्थन है ।" "ऋषिवर ! आप सन्त हैं,धन की ऐसी क्या भीषण ममता? भद्र-वंश की गृह - लक्ष्मी को बिकवाते न हृदय तपता?" "मूर्ख वृद्ध ! तुमको क्या इससे ? मुझे दक्षिणा लेनी है, अगर दया है, ला तू दे दे, क्या शिक्षा ही देनी है ?" "मुझ गरीब ब्राह्मण के पल्ले सहस्र स्वर्ण का द्रव्य कहाँ ? अगर पाँच सौ चाहें तो लें, अभी गिना दू, खड़ा यहाँ ?" कौशिक ने सोचा- "तारा है, धैर्यवती, विदुषी नारी, भूपति को विचलित होने से यही बचाती हर वारी !
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