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सत्य हरिश्चन्द्र
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तारा अति उद्विग्न - नयन से हरिश्चन्द्र के मुख की ओरलगी देखने, प्रतिवाणी की प्रत्याशा से शोक - विभोर ! तारा की चिर - मधुर मूर्ति की कटु विच्छेद - कल्पना से, हरिश्चन्द्र का हृदय तप्त हो उठा शोक को घटना से । "प्राणों के रहते न कभी भी मेरे मुख से वह वाणी, निकल सकेगी, जिसको सुनना चाह रहो तुम, कल्याणी ! त्रिभुवन के वैभव का मेरे निकट जरा भी मूल्य नहीं, मेरे लिए एक तुम ही हो सत्य, तुम्हारे तुल्य नहीं । प्राण वल्लभे ! तव सुखार्थ सर्वस्व निछावर कर दूंगा, प्राणों की भी बलि दे दूंगा, कभी नहीं कुण्ठित हूँगा।" "प्रियतम ! प्राणनाथ ! परमेश्वर ! कृपा बड़ी है दासी पर, धन्य भाग्य हैं, अमल स्नेह की धारा बहती दासी पर । मेरे धर्म - कर्म सब तुम हो, मेरे जीवन, मेरे धन ! जन्म - जन्म में भी दासी का प्रभु - चरणों में हो वन्दन । सदा आपके सुख में ही सुख मेरी आत्मा पाती है, कैसा भी हो समय, आपका पथ निश्चल अपनाती है। आज आपका मस्तक यदि यहाँ अपमानित हो झुक जाये, अगर आज उज्ज्वल चरित्र पर दाग जरा भी लग जाये । तो फिर रवि - कुल का यह गौरव प्रभाहीन हो जायेगा, कोटि - कोटि वर्षों से रक्षित सुयश क्षीण हो जायेगा। अपने जोते - जो न आपका यशोनाश मैं देखूगी, बिना आपकी अनुमति के ही मैं अपने को बेचूंगी। अगर आपके गौरव की मैं रक्षा कुछ भी कर पाऊँ, तो मैं पत्नी होने का निज धर्म सफल कुछ कर जाऊँ ।
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