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सत्य हरिश्चन्द्र पशु - समान बिक जाने पर भी सुख अनन्त मुझको होगा, नाथ ! न लक्ष्य प्राप्ति से रोकें, दुःख अनन्त मुझको होगा।" भूपति से जब मिली न आज्ञा चली स्वयं रानी तारा, आपणिकों के पात्र आदि का कार्य शीघ्र निबटा सारा।
रोहित रुदन मचाता पीछे चला, साथ ही भूपति भी, क्रोध - मूर्ति प्रत्यक्ष, चले श्रीमान हठी कोशिक यति भी। सूर्यदेव की प्रखर रश्मियाँ, तप्त रूप तज शान्त वनी, यत्र तत्र काशो को सड़कों पर थी मानव - भीड़ ठनी। दास - चिन्ह - अनुरूप शीश पर तृणा रख कर तारा रानी, आईं ज्यों ही मध्य विपणि में, फैली त्यों ही हैरानी ! "कैसी दासी, यह तो कोई ऊंचे कुल की नारी है ? क्यों बिकती है ? बस रहस्य है, दुनिया की मक्कारी है।" पूछे पर जब पता लगा तो सभी लोग आश्चर्य हँसे, "कौन सहस्र स्वर्ण मुद्रा दे इस झंझट में व्यर्थ फंसे।" कहता कोई कौशिक से –'तुम साधु, किस पचड़े में हो ? नारी बिका द्रव्य को चाहो फँसे निन्द्य झगड़े में हो?" भूपति को कहता है कोई-"पुरुष नहीं यह अभिशापी,
आँखों के आगे पत्नी को बिक्रती देख रहा, पापी।" तारा के प्रति कोई कहता- “नारी यह कलिहारी है, संभव है दुःशीला भी हो, तभी बेचना जारी है।" सभी ओर से कटु वाणी का अति निःसीम प्रवाह बहा, हरिश्चन्द्र - तारा ने दिल को कड़ा किये यह द्वन्द्व सहा । कोई भी जब मिला न ग्राहक, घटा निराशा की छाई, इतने में ही वयोवृद्ध ब्राह्मण की मूर्ति नजर आई।
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