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सत्य हरिश्चन्द्र
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अब क्या था, ऋषि हुए और भी गर्म, क्रोध - कंपित स्वर में - बोले मानों बिजली कड़की घोर गरजते जलधर में । "हाँ अभिमान अभी बाकी है, ऐंठ न मन की निकली है, स्थापित भूत सत्य का शिर पर, शक्ति समझ की हरली है । पकड़े रखिए पूँछ सत्य की मुझे छुड़ा कर क्या लेना ? सो बातों की एक बात है, बोल दक्षिणा कब देना | 'हाँ-हाँ ना-ना' का अभिनय यह देख न सकता हूँ मैं और, शीघ्र दक्षिणा दे दो, वर्ना त्रिभुवन में न मिलेगा ठौर ।"
तारा ने अति नम्र भाव से हाथ जोड़ कर प्रणति करी, कातर कण्ठ स्वर से कौशिक ऋषिवर से यों विनति करी । "दीनबन्धु, करुणा के सागर, क्षमा कीजिये कुपित न हों, आप सन्त हैं, हम गृहमेधी मर्यादा से पतित न हों ।
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प्रश्न नहीं है यहाँ मुकरने का, मजलूमी है उलझन । पास नहीं है कौड़ी तक भी, सहस्र स्वर्ण मुद्रा का ऋण ? अगर नहीं विश्वास आपको अभी तलाशी ले लीजे, अन्दर जाकर कुटिया में से जो मन चाहे ले लीजे !
आप अनुभवी, ज्ञानी, योगी, दयाभाव हम पर लाएँ, ऋणमोचन का, सत्य त्याग के सिवा, मार्ग कुछ बतलाएँ ?" "तारा मैं समझा था पहले - तुम कुछ तत्त्व परखती हो, बुद्धिमती हो, समझदार हो, नहीं अधिक हठ रखती हो ।
आज चल गया पता कि तुम तो भूपति से भी बढ़कर हो, बाहर कोमल, किन्तु वज्र-सी कठिन हृदय के अन्दर हो ! भूपति यदि कुछ मानें तो भी तुम न मानने देती हो, सत्य - सत्य की रट में ऋण का हल न समझने देती हो ।
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