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सत्य हरिश्चन्द्र रानी की परिचर्या से जब दूर मूर्च्छना हुई जरा, हरिश्चन्द्र तारा से बोले शोकानल आकण्ठ भरा ! "तारा ! तुम क्या कहती हो यह ? क्या अपने को बेचोगी ? कौशल की सम्राज्ञी, दासी वन कर संकट झेलोगी? तुम्हें बेच कर कर्ज चुकाऊँ मुझ से यह न कभी होगा, पत्नी - विक्रय के अघ से तो अच्छा मरना ही होगा।" "गर्वी राजा, अब भी तेरा गर्व न ठण्डा हो पाया, नहीं सत्य की चिन्ता पत्नी - विक्रय से है शरमाया। अभी हुआ क्या, जीवन - नौका दुःख - सिन्धु में डूबेगी, क्षत्रियता की अकड़ देखना, कैसे कण - कण टूटेगी ?" "नाथ ! शर्म क्या बिकने में है ? सत्य - धर्म का पालन है, कैसे भी हो प्रण की रक्षा करना ही तो जोवन है । आप भला कब मुझे बेचते ? मैं तो खुद ही बिकती हूँ, अर्धांगिनि हूँ अपना आधा ऋण तो मैं दे सकती हूँ। प्राणेश्वर ! अब तो बस दिल पत्थर करना ही होगा, कौशिक ऋषिवर भी सच्चे हैं, ऋण तो भरना ही होगा।" "ऋण से तो इन्कार नहीं है, दूंगा, दूंगा, फिर दूंगा, ऋषिवर के चरणों में अपना शीश काट कर रख दूंगा। जग में जो भी अधमाधम अति निन्द्य कर्म हो करवाएँ, क्षमा करें, पर तारा-मेरे जीते - जी मत बिकवाएँ !" "अरे मूढ ! कुछ होश नहीं है, मन आया सो वकता है, मैं विकवाता हूँ तारा को, कौन विज्ञ कह सकता है ? ऋण-परिशोधन तुझे न करना, दम्भ पूर्ण अभिनय करता है, उलटा दोष मुझे देता है, जरा नहीं मन में डरता है !
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