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सत्य हरिश्चन्द्र
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दुःख से, सुख से किसी तरह से जीवन - शेष बिता देता, अपमानों की वर्षा अपने मस्तक पर न कभी लेता।" हरिश्चन्द्र को मौन देखकर बोले फिर कौशिक ऋषिवर, "दानी हरिश्चन्द्र क्यों चुप हो ? अरे तनिक तो दो उत्तर ? एक मास में ऋण - शोधन की गर्व • प्रतिज्ञा पूर्ण करो, आज आखिरी दिन है, क्षत्रिय-धर्म न अपना पूर्ण करो।" हरिश्चन्द्र अब भी नीरव था किंकर्तव्य · विमूढ खड़ा, दृष्टि भूमि - तल भेद रही थी, उत्तर कुछ ना सूझ पड़ा। बड़ी कठिनता से अनुनय कर एक मास का समय लिया, वह भी आज समाप्त प्राय है, ऋण-शोधन कुछ भी न किया। "राजन् ! मैं निर्द्वन्द्व तपस्वी हूँ, मत तप में विघ्न करो, आज अवधि है पूर्ण, शीघ्र हल ऋण-शोधन का प्रश्न करो। अब है कठिन तुम्हारे पीछे - पीछे अधिक घूम सकना, साधु हूँ, बस भला न लगता है इससे बकना - झकना !" "बार-बार कर व्यङ्ग प्रश्न,क्यों ऋषिवर लज्जित करते हो? छिपा हुआ कुछ नहीं आप से व्यर्थ तिरस्कृत करते हो ? कौड़ी भी लेकर न अयोध्या नगरी से मैं आया हूँ, निरावलम्ब, रिक्त कर, पत्नी - पुत्र साथ में लाया हूँ। भोजन की भी नहीं व्यवस्था मजदूरी करके खाते, आप बताएँ, सहस्र स्वर्ण मुद्रा का द्रव्य कहाँ पाते ? मैं तो मानव हूँ, देवों को भी कुछ कम यह विपत नहीं, कृपा कीजिए, सदय होइए, मर्म - वेदना उचित नहीं।" "अच्छा राजन् ! मैं प्रसन्न हूँ स्पष्ट बात कह दी तुमने, अन्दर की चिर - रुद्ध धर्तता, आज प्रगट कर दी तुमने ।
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