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सत्य हरिश्चन्द्र सारे जीवन में भी तुझसे ऋण न पूर्ण यह हो सकता; जा, अपना कर काम, व्यर्थ ही काम हमारा है रुकता । आज सहस्र मुद्राएँ ले ले, यदि कल को तू भग जाए; कहाँ ढूँढते फिरें, पता फिर कहीं नहीं तेरा पाएँ ?" "अजी, सेठजी ! क्या कहते हो ? सेवा से भग जाऊँगा? क्षत्रिय होकर क्या मैं अपने प्रण - पथ से हट जाऊंगा? आप पूर्ण विश्वस्त रहें, मैं कौड़ी शेष न रक्खगा; अदा करूँगा ऋण, यह जीवन सारा यहीं बिता दूंगा ! चल, हट, जगह छोड़, धूर्त ! क्या मूर्ख समझता है हमको;
और किसी को फँसा जाल में, फंसा नहीं सकता हमको। तेरे जैसे धूर्त - शिरोमणि, कितने आते - जाते हैं; सज्जनता का ढोंग दिखाकर माया - जाल बिछाते हैं !" बड़ा दुःख है, बड़ा कष्ट है, धनवालो ! क्या करते हो ? दीन - दुःखी का हृदय कुचलते, नहीं जरा भी डरते हो ? लक्ष्मी का क्या पता, आज है, कल दरिद्रता छा जाए; दो दिन की यह चमक चाँदनी किस पर तुम हो गरवाए ? लक्ष्मी का वैभव मानव की आँखें अन्धी कर देता; मक्खी, मच्छर दुनिया को, खुद को गजराज समझ लेता। संस्कृति और सभ्यता उसके पास न आने पाती है; मानवता सब भांति विलज्जित अपमानित हो जाती है। धन - दौलत पाकर भी सेवा अगर किसी की कर न सका; दयाभाव ला, दुःखित दिल के जख्मों को यदि भर न सका । वह नर अपने जीवन में सुख-शान्ति कहाँ से पाएगा ? ठुकराता है, जो औरों को स्वयं ठोकरें खाएगा?
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