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सत्य हरिश्चन्द्र
हरिश्चन्द्र पर कौशिक का ऋण क्या कुछ कीमत रखता है ? कैसा ऋण, बस वचन मान से बँध विपत्ति में फंसता है।
यदि वह चाहे तो नट जाए, बुरा न कोई उसे कहे, किन्तु सत्य की मूर्ति, झूठ के सागर में किस तरह बहे ? एक दिवस साहस कर भूपति बाजारों की ओर चले, 'नौकर रह कर ऋण दे देंगे,' बस सेठों की ओर ढले ।
तन चलता है, किन्तु पड़ा है लज्जा का घेरा मन पेर, अस्तु, विपणि के इधर - उधर से कई बार काटे चक्कर !
आखिर मन को कड़ा बना कर, एक सेठ के द्वार गया, हरिश्चन्द्र के जीवन में था यह प्रसंग आमूल नया । सम्मुख होते ही श्रेष्ठी ने कहा-"अरे क्या लेना है ? तेरे जैसे भिखमंगों को नहीं मुझे कुछ देना है।"
यह सुनते ही हरिश्चन्द्र के मुख पर छाई अति व्रीड़ा, कोटि - कोटि वृश्चिक - दंशों - सी हुई मर्म - वेधक पीड़ा। कालचक्र की महिमा लखकर तिरस्कार सब सहन किया, गर्वोद्ध र - कंधर श्रेष्ठी को उत्तर स्पष्ट विनम्र दिया। "रंक, बुभुक्षित हूँ, सब-कुछ हूँ, किन्तु नहीं मैं भिखमंगा, प्रलय काल भी आ जाए, पर बह न सके उलटी गंगा। क्षत्रिय हूँ, इक खास बात के लिये समय कुछ लेना है, व्यर्थ सेठजी मुझे आपको कष्ट नहीं कुछ देना है।" कहा सेठ ने-"अच्छा, जल्दी कहो तुझे जो कुछ कहना, पर मुझसे से पाने की आशा में न जरा भी तुम रहना !"
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