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सत्य हरिश्चन्द्र
१०६ भूपति ने तब कहा- “सेठजी, नौकर मुझको रख लीजे, क्रय - विक्रय या लिखा - पढ़ना, सेवा मन चाही लीजे । क्षत्रिय हूँ, अतएव सर्व - विधि रक्षा भी कर सकता हूं, चोर और डाकू के संकट पलभर में हर सकता हूँ। मुझ पर कुछ ऋण चढ़ा हुआ है, वह सब आप चुका दीजे; जब तक हो न अदा ऋण, मुझको सेवक आप बना लीजे ! मेरा जो भी वेतन होगा, जमा स्वऋण में कर दूंगा;
और आपसे भोजन आदिक व्यय न कभी कुछ भी लूगा।" "अच्छा, व्यय न तुझे कुछ लेना, बतला फिर क्या खाएगा ? भूखा रह कर कैसे अपना, तू गुजरान चलाएगा ?" "भोजन-वस्त्र आदि की चिन्ता मुझे नहीं बाधित करती ? मेरी पत्नी मजदूरी कर उचित व्यवस्था खुद करती।" कितना ऋण है तुझ पर बतला? 'सहस्र स्वर्ण की मुद्रा का। 'क्या खेला था जुआ ? नहीं मैं भागी इस अपमुद्रा का।' "मामूली ऋण नहीं, बता फिर कैसे इतना ऋण आया ? फंसा किसी दुर्व्यसन - जाल में निज सर्वस्व लुटा आया?" "स्वप्न-लोक में भी न व्यसन का स्पर्श कभी होता मुझको; मात्र दक्षिणा-ऋण ब्राह्मण का, कहा हुआ देना मुझको।" "दानवीर हो बड़े धुरंधर, रूप तुम्हारा बतलाता; कैसे तुझको नौकर रक्खू, मेरा मन है शर्माता !" "भाग्य चक्र का परिवर्तन है, अब क्या मुझ पर हँसिएगा, अच्छा कुछ भी कहें, कृपा है, नौकर तो हाँ रखिएगा !" कैसे नौकर रक्खू तुझको नहीं समझ में कुछ आता; सहस्र स्वर्ण की मुद्राओं का व्याज न वेतन दे पाता।
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