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सत्य हरिश्चन्द्र
१०७ हरिश्चन्द्र ने कहा- "प्रिये, ऋण - मुक्त बनेंगे हम कैसे ? आय तुच्छ है उदर पूर्ति भर, मुद्रा सहस्र चुके कैसे ? राज्य • त्याग का मेरे मन में दुःख नहीं है अणुभर भी, किन्तु हृदय में ऋण चिन्ता से शान्ति न मिलतो क्षणभर भी।" "नाथ ! ठीक है सत्यव्रती के लिये सत्य ही सब-कुछ है, सच्चे क्षत्रिय के मन में तो अपना प्रण ही सब-कुछ है । राज्य - त्याग का प्रण पूरा कर दिया, पूर्ण यह भी होगा, स्पष्ट हृदय है, दंभ न कुछ भी, ऋण का भार अदा होगा। सत्य - हीन दंभी मानव का नहीं निवट ऋण पाता है, सत्यव्रती के लिए स्वयं ही द्वार कहीं खुल जाता है।" तारा के ओजस्वी प्रवचन भूपति को धीरज देते, व्याकुल मन को इसी तरह से कभी - कभी समझा लेते । योग्य सहचरी पाकर नर का हो जाता है दुःख आधा, पत्नी हो यदि कुटिल - कर्कशा सुख में भी दुःख की बाधा। पाठक ! देख रहे हैं कैसे धनी सत्य के पूर्वज हैं, विश्व - गगन में ऊंचे उड़ते कैसे दिव्य विजय - ध्वज हैं ? जीवन ओत - प्रोत है कैसा सत्य - धर्म की विद्य त से, सब-कुछ भूले, सत्य न भूले, रहे सत्य पर प्रस्तुत से। आज कलियुगी मनुज स्वयं ऋण लेकर भी हैं नट जाते, देने की हो शक्ति, अंगूठा फिर भी साफ दिखा जाते ! मानवता की शुभ्र ज्योति पर अन्धकार कैसा छाया ! घर में सब-कुछ रख, ऊपर से चली दिवाले की माया !
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