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क्रण-चिन्ता
हरिश्चन्द्र के सत्य का यह उज्ज्वल आदर्श, कभी उपेक्षा का नहीं प्रण के प्रति हो स्पर्श ।
हरिश्चन्द्र की जीवन - यात्रा सुख के साथ गुजरती है, तन पर, मन पर पूर्णतया अब श्रम की दीप्ति चमकती है। कौशल के वैभव की छाया जरा न आती स्मृति • पथ में, बढ़े जा रहे, सब - कुछ पिछला भूल, सत्य के सत्पथ में। किन्तु, दक्षिणा के ऋण का जब कभी ध्यान आ जाता है, रोम - रोम में एक प्रबल तूफान खड़ा हो जाता है। एक सहस्र का ऋण है शिर पर, पास नहीं इक पैसा है, निकट अवधि है, ऋद्ध तपस्वी, संकट उत्कट कैसा है ? तारा चिन्तित होती पति के मुख पर देख निराशा को, पति के साथ - साथ पत्नी भी भूली सभी शुभाशा को। अन्दर - ही - अन्दर मानस में रोती आहें भरती है, स्वामी के कल्याण - हेतु शत • सहस्र प्रार्थना करती है। साहस भर कर कभी हृदय में कहती-"क्या चिन्ता स्वामी? ऋण से मुक्ति मिलेगी, शिर पर संरक्षक अन्तर्यामी। चिन्ता कर-कर तो निज तन को दुर्बल अधिक बना लेंगे, स्वस्थ रहे तो किसी तरह से कमा, दक्षिणा दे देंगे।"
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