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सत्य हरिश्चन्द्र
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कितना साहस, कितनी दृढ़ता, फिर जरा न घबराते, स्नेह - मूर्ति पति - पत्नी दोनों, दुःख में भी सुख ही पाते । मानव आखिर मानव है, कुछ दुःख में होश नहीं रहता, धर्म • कर्म के नियम भूल कर भ्रान्ति - तरंगों में बहता। हरिश्चन्द्र, तारा तो मानव, होकर भी अति मानव हैं, सत्य, धर्म के लिए हर्षयुत, कष्ट सह रहे अभिनव हैं। भिक्षा या अनुचित पद्धति से ग्रहण न करते भोजन भी, सत्य - धर्म से तन क्या डिगना, डिगता है न कभी मन भी।
सत्य कहा है सत्पुरुषों का, असि - धारा • सा जीवन है, न्याय - वृत्ति से पतित न होते, संकट में न प्रकम्पन है। राजा कला - कुशल थे फलतः काम ठीक ढंग से करते, कार्य - कुशलता की शिक्षा नित, मजदूरों को भी करते । स्वामी और सभी श्रमजीवी, भूपति का करते आदर, कैसी भी हो दशा, गुणों से, पूजा पाता है नर - वर ।
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