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सत्य हरिश्चन्द्र
प्राण- पति जिस पथ चलें, पत्नी उसी पथ पर चले, शास्त्रकारों की हृदय में गूंजती आवाज है ! हो चुका कितना जमाना, फेर युग का लग गया,
अब भी तारा किन्तु तुझ से धन्य नारी समाज है । हरिश्चन्द्र भी मजदूरी कर, भोजन की सामग्री ले, आये हर्षित सुत - पत्नी के पास, स्नेह अतिभारी ले ।
पति के आते ही तारा ने कहा - " नाथ, भोजन कीजे, दासी को करुणा के सागर, सेवा का अवसर दीजे ।"
राजा विस्मित लगे पूछने - " सामग्री तो मैं लाया, मुझ से पहले ही यह भोजन, देवि ! कहाँ तुमने पाया ?"
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"प्रभो, आप भोजन तो कर लें दृढ़ विश्वास दिलाती हैं, सब विधि न्यायोपार्जित ही यह भोजन आज खिलाती हूँ"
पूर्ण हुआ जब दम्पति का वह स्नेह भरा सात्विक भोजन, फिर बातों बातों में आया, श्रम वर्णन, उसका अर्जन ।
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नाथ, आप भी यह सामग्री कहो कहाँ से लाये हैं, मजदूरी से ही न ? इसी पथ, मैंने कदम बढ़ाये हैं ।
अगर आप मजदूर बने फिर मुझको लज्जा सहना क्या ? धर्म-कर्म के, न्याय नीति के, जीवन की अवगणना क्या ? एकमात्र पति - धर्म शास्त्र ने, पत्नी का बतलाया है, अस्तु, नाथ ! दासी ने भोजन, मजदूरी से पाया है ।
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गृही जनों की नीति यही है, कुछ तो घर में संचय हो, ताकि समय पड़ने पर मानव कुछ दिन तक मन-निर्भय हो ।
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