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सत्य हरिश्चन्द्र
१०१ पामर दुर्बल अंगहीन ही, गृही पराश्रित रहता है, शक्त गृही तो नित जीवन को, निज श्रम पर हो रखता है। मैं गरीब हूँ, किन्तु गृहस्थी हूँ, नहीं भिखारी का जीवन, भूखा रह कर मर सकता हूँ, भ्रष्ट न होगा पर तन-मन ।" "पत्नी भी न करेंगी भोजन, यह तो तुम से भी दृढ़ - तर, पर बालक तो खाएगा ही, इसका क्या आग्रह प्रियवर !" "नहीं, पुत्र भी खा न सकेगा. पिता - पुत्र में क्या अन्तर ? एक बार भी धर्म - दान का, अन्न असंस्कृत देता कर ।" नृप की बातें सुन संचालक, मन में बहुत प्रसन्न हुआ, धन्य - धन्य हैं, संकट मैं भी, नहीं धर्म अवसन्न हुआ। अपने मुख से नहीं स्वयं का, भेद पुरातन बतलाते, पर बातों से उच्च दशा के, स्पष्ट चिन्ह हैं दिखलाते । हरिश्चन्द्र को संचालक ने, एक कोठरी दिखला दी, और किराये की निश्चिति भी, अत्याग्रह पर बतला दी। ठीक न समझा - 'सद् गृहस्थ यह और कहीं धक्के खाए', कैसा ही हो क्यों न समय पर, सत्य न निष्फलता पाए। हरिश्चन्द्र तारा से बोले, "साफ करो गृह मैं जाता, भोजन की सामग्री, कुछ कर उचित परिश्रम, हूँ लाता। भूपति गए उधर, रानी ने इधर कोठरी साफ करी, उचित किराये पर, आश्रम से पात्र - व्यवस्था ठीक करी। तारा ने सोचा अब मन में-"पति नगरी में जाएंगे, कष्ट - साध्य श्रम कर भोजन की सामग्री कुछ लाएंगे !
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