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काशी में
हरिश्चन्द्र के सत्य की, है अति उज्ज्वल दीप्ति प्रभा - पूर्ण रवि - तेज भी होता क्षीण प्रदीप्ति ।
आज कौन काशी के पथ पर दीन - हीन यह जाता है, नारी-सुत को साथ लिए अति रंक दृष्टि में आता है ।
किन्तु अभी मुख - मंडल पर का तेज न अणु भी धुंधलाया, जिसने देखा उसने ही आश्चर्य अमित मन में पाया ।
आप बता सकते हैं क्या ? यह कौन पुरुष है गुण - धारी हरिश्चन्द्र ! जिसने कौशिक को सभी सम्पदा दे डारी |
एक सहस्र का ऋण अब भी है बाकी, उसे उतारेंगे, राजा से बन गए रंक, पर धर्म न अपना हारेंगे !
मानव चाहे कितना ही हो फँसा असह्य परिस्थिति में, अन्तर का उद्दीप्त तेज छिपता न विपद की हुंकृति में ।
लक्षाधिक नक्षत्र, गगन में निज निज किरणें चमकाते, किन्तु प्रभा शशि- मण्डल की फीकी न जरा भी कर पाते ।
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पथिकाश्रम की शोध लगाते एक ओर नरपति आए, दिव्य राजसी तेज अलौकिक दीन गात से लिपटाए ।
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संचालक ने देखा ज्योंही चकित हुआ मन में भारी, दीन - वेष यह फिर भी अनुपम सुन्दरता कैसी प्यारी ?
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