________________
सत्य हरिश्चन्द्र
वन-फल खाकर, दिन ढलते ही दम्पति का विश्राम चला,
अब की बार मधुर फल पाकर रोहित भी कुछ-कुछ सँभला। तीनों प्राणी इसी तरह से वन - पथ के सुख - दुःख सहते,
काशी गंगा तट पर आए, प्रमुदित 'जय गंगे' कहते ।
तीनों ने गंगा के शीतल, स्वच्छ, सलिल में स्नान किया,
बैठ शान्ति से तट पर कुछ क्षण, लहरों का आनन्द लिया।
उठतीं, गिरतीं, गिर कर उठती, लहरें मन को भाती हैं,
सांसारिक परिवर्तन का वैराग्य - चित्र दिखलाती हैं।
गीत
गंगे, तुम्हारी धारा अविराम बह रही है, ___कर्तव्य - शीलता का सन्देश कह रही है। अचलों को चीर देती, टीलों को चूर्ण करती,
पथ की रुकावटों को, दल - मल के बढ़ रही है ! आगे को चल पड़ी तो, पीछे को लौटना क्या ?
निज लक्ष्य पर पहुंचने, निशि - दिन उछल रही है !
मिलते जो मैले जल से, पूरित नदी व नाले
__ अपना स्वरूप दे कर, सम - सृष्टि रच रही है ! बहती जिधर, उधर ही होता, हरा - भरा जग,
जल - राशि कर के अर्पण, उपकार कर रही है ! मानव अगर चले इस आदर्श पर, 'अमर' हो___ गंगे, तू जिस पै इसका सुवितान तन रही है !
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org