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सत्य हरिश्चन्द्र
आपके सुमरन से हो जाता अखिल पापों का लय, ठहर सकता है तमस क्या ? जब उदय होता दिनेश ! अविचल रहूँ,
जाएँगे क्लेश !
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कामना इक श्री चरण में सत्य पर देर क्या फिर खुद 'अमर'
जीवन के कट
ईश्वर को,
संकट में पड़ पामर प्राणी, सदा कोसते राम ! बिगाड़ा क्या तेरा ? यह दुःख दिया जीवन भर को ! हरिश्चन्द्र किस तरह भक्ति के साथ वन्दना करते हैं ? धर्म - कष्ट को कष्ट नहीं, प्रभु का वरदान समझते हैं । प्रभु - चिन्तन से निबट च फिर, काशी नगरी के पथ पर, प्रथम दिवस की श्रान्ति चढ़ी है, पड़ते हैं पद रुक-रुक कर । एक-दूसरे से निज दुःख को, सभी छुपाये चलते हैं, होगी चिन्ता व्यर्थ मानसिक, अस्तु, मौन ही रहते हैं
रोहित पैदल, कभी गोद में चलता चलता श्रान्त हुआ, उधर भूख की पीड़ा से तन कोमल शिथिल नितान्त हुआ । लज्जा के कारण पहले तो, रहा दबाए अपने को, कब तक दाबे रखता, आखिर बालक लगा कलपने को ।
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भूख लगी है, माँ ! खाने को, बार- बार कह कर रोता,
देख विकलता, मात-पिता का, अचल धैर्य भी चल होता । तारा, मौखिक - आश्वासन से, सुत को धीरज देती है, पर बातों से कहो किसी की, व्यथा शान्ति कब लेती है ? हरिश्चन्द्र ने दिये पुत्र को, अर्ध पक्व कब अच्छे लगते थे, फैंके, मौन रहा मन भुंभला कर ।
वन फल लाकर,
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