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वन - पथ
सत्य धर्म की ज्योति से उज्ज्वल चित्त अतन्द्र, हरिश्चन्द्र जग वन्द्यतम रवि कुल-कैरव चन्द्र । भयंकर सूना वन है, कहीं मनुज का नाम नहीं, कदम-कदम पर दुःख फैला है, लेश न सुख का काम कहीं ! पत्ते - पत्ते के पीछे मानव की, मृत्यु छुपी बैठी, वीरों को भी कम्पित करती, भीषणता कण कण पैठी ! निर्भय मन निर्द्वन्द्व जा रहे, इसमें तीन भद्र प्राणी, किस कारण ? किस लिये ? सत्य की मुख से निकली दृढ़ वाणी । पाप कर्म के लिये जगत् में, सहते लाखों, दाह सही, धन्य वे एक धर्म हित, जिन्हें दुःख पर्वाह नहीं !
धन्य
हरिश्चन्द्र, जिनके थे लाखों, बन्दी यश
गाने वाले, आज अकेले नगे पैरों, चलने से पड़ते छाले । तारा, जिसके चरणों नीचे, पुष्प बिछाये थे जाते,
आज सुकोमल पद काँटों से, शोणितमय हो - हो जाते । रोहित, माता - पिता की आशाओं का केन्द्र कहाता था, मन चाहा सुख कहने से जो, पहले ही पा जाता था ।
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भीम
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आज अनाथों-सा जीवन ले कण्टक, बालक है, चल सकता है क्या ?
पद
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तीनों ही जन मानवता का दिव्य, स्वर्ग - लोक - सा वैभव पल में,
पथ पर जाता है,
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पद ठोकर खाता है !
नाट्य
दिखला आये,
सत्य हेतु ठुकरा आये !
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