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सत्य हरिश्चन्द्र
सत्य - शक्ति ने तप-बल को ही, .
तेजोलीन बनाया, अरे" त्यागी भोगी, भोगी त्यागी,
उलटा चक्र चलाया, अरे... हरिश्चन्द्र तू धन्य अमर है,
सत्य अखण्ड निभाया, अरे पश्चात्ताप - सुधा से ऋषि की, मति अति निर्मल हो जाती, किन्तु उसी क्षण अहंकार की, आँधी आई घहराती ! "अब तो कुछ भी हो भूपति को ही, नोचा दिखलाना होगा, चिर प्रसिद्ध ऋषि गौरव को ही, ऊँचा बतलाना होगा। अगर आज मैं हार मान ल, पूछेगा फिर कौन मुझे ? नहीं कहीं भी बोल सकूगा, रहना होगा मौन मुझे।" कदाग्रहों में पड़ मानव का, चित्त विकल हो जाता है, जानबूझ कर भी सत्पथ को वह, कभी न अपना पाता है !
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