________________
सत्य हरिश्चन्द्र
७३
"चल,रोहित चले, मह अब तक न स्वर्ण-मृगशिशु लाए, देख, किन्तु चुपके से तेरा खेल देखने को आए ।" तारा ज्यों ही रोहित का कर, पकड़ अलग को चला है बाल मूर्ति कर छुड़ा पिता को ओर विहँसती बढ़ती है । हरिश्चन्द्र ने उठा गोद में सुत का स्मित मुख चम लिया, तारा हँस कर बोली-“मेरा रोहत भी लो छीन लिया, अच्छा ले लो पुत्र आपका, मैं एकाकी रह लूगी, देख, किन्तु रोहित ! फिर अपने पास नहीं आने दंगो।" कह कर यों जब चली विहँसती, विद्य त - रेखा - सी तारा, भूपति कृत्रिम स्मित कर बोले, संचय कर निज बल सारा । "हाँ तारा ! तुम जाओ, अब तो तुम्हें अकेले रहना है, यह विनोद का समय न, जो कुछ कहना सच्चा कहना है । आज हृदय की रानी ! तुमसे विदा माँगने आया हूँ, पता नहीं अब कब मिलना हो, अन्तिम मिलने आया हूँ।" तारा स्तब्ध हुई क्रीड़ा औ' कौतुक पल में नष्ट हुए, देखा पति के मुख - मण्डल पर म्लानि भाव ही दृष्ट हुए ।
हरिश्चन्द्र के मुख पर गहरी करुणा की तमसा छाई, श्रावण में शशधर • मण्डल पर जैसे श्याम घटा आई।
कातर गति से तारा ने आ हाथ पकड़ पूछा--"प्रियतम ! क्या कारण? क्याहुआ? बताएँ, हृदय भयाकुल कम्पित मम ! "रानी ! बस, क्या सुन कर लोगो, तुम न सहन कर पाओगी, इस अनर्थ का सूत्रपात भर सुनते ही डर जाओगी।"
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org