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सत्य हरिश्चन्द्र
राजा से कहते थे सब जन-"आप महा से क्यों जाएँ ? कौशिक ऋषि के कोनल में, व्यर्थ हमें क्यों झुलसाएँ ? अगर पिको जाना है तो, साथ हमें भी ले चलिए, आहत हृदयों को क्षत-विक्षत, और अधिक अब मत करिए । विना आपके निर्जन वन - सो, दुःखागार अयोध्या है, निर्जन वन भी साथ आपके, सुख - भंडार अयोध्या है।" हरिश्चन्द्र ने प्रेम - भरे मृदु स्वर से लघु वक्तव्य दिया, शोक-विकल जन - मानस को सदुपदेश कुछ श्रव्य दिया । "कौशिक के शासक होने का, मैं निज भाग्य मनाता हूँ, संकट में भी आप प्रजा से, शुद्ध प्रेम जो पाता हूँ। मुझ सेवक पर प्रेम - अनुग्रह - भाव आपका भारी है, भूल न सकता हरिश्चन्द्र, पर आज बड़ी लाचारी है। कौशिक को साम्राज्य दे चुका, अब कैसे मैं रह पाऊँ ? और विना ऋषि - आज्ञा कैसे, साथ तुम्हें भी ले जाऊँ ? सत्य धर्म है एक मात्र अवलम्ब, मानव - जीवन का, सत्य धर्म के लिए निछावर गौरव है, सब तन, धन का। सूर्य चन्द्र टल जायँ स्वगति से, पर न टलूगा निज प्रण से, कीर्ति, प्रतिष्ठा, प्रभुता सब - कुछ, एक सत्य के कारण से। दुराचरण में पड़ वेश्या को, राज्य अगर मैं दे देता, फिर भी क्या इस भाँति आप से गौरव - आदर मैं लेता ? कौशिक से क्या घबराहट है ? वे जगपरिचित शासक हैं, क्रु द्ध भले हों, पर आखिर तो, चिर - नीतिज्ञ विचारक हैं।
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