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सत्य हरिश्चन्द्र
'डरने की क्या बात ? आपको टाप "म भी स्वामी ! वीर क्षत्रिय - बाला हूँ, मैं श्री चरणों की अनुगामी ! तम चुकी हूँ मुख - मुद्रा से कोई दुःखद घटना है, किन्तु नाथ ! क्या दुःख के कारण जीवन से मर मिटना है ? दुःख., दुःख है, जब आता है, सहन किया ही जाता है, नर - जीवन में धूप छोह - सा सुख-दुख का चिर नाता है ! सह न सकी यदि सारा दुख तो आधा निश्चित सह लगी, मैं हूँ अर्धांगिनी स्वामी ! धीर दुःख में रह लूगी। "तारा ! तुझसे कहाँ छिपाऊँ ? तू साथिन है जीवन की, व्याह • काल से जुड़ी हुई हैं कड़ियां अचल युगल मन की ! कौशिक ऋषि ने आज सभा में राज्य - दान मुझसे माँगा, मैंने भी कर्तव्य - विवश सर्वस्व उसी क्षण में त्यागा।
तारा ! कुछ भी कहो, त्वरा में ध्यान नहीं आया तेरा, रोहित से सुत को भी भूला, आग्रह ने मन को घेरा !" "हृदयेश्वर ! क्या इसी बात की दुःख घटा यह छाई है, मैंने तो समझा था कोई विपद अचानक आई है। कौशिक को साम्राज्य दिया, इससे तो हर्ष बड़ा भारी, सूर्यवंश की रही सुरक्षित चिर - रक्षित महिमा सारी। याचक बनकर ऋषिवर आये, देना ही सर्वोत्तम था, दानपात्र भी भाग्य - योग से मिला महान् महत्तम था। आज गर्व से मेरा मस्तक ऊपर उठता जाता है, दानवीर पति सर्वोत्तम पा हर्ष न हृदय समाता है।
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