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सत्य हरिश्चन्द्र
शान्त, कान्त, एकान्त स्थान में पूर्ण शालिक थी सुखदानी, रोहित के प्रति खेल - रोल में, बोली सस्मित महारानी ! "लेजा कोह कौन ? और किस कुल का उज्ज्वल दीपक है ? सूर्यवंश के महिमामय यश गौरव का सम्वर्द्धक है। हो, लालची, अभिमानी, कटुभाषी तू न कभी बनना, वीर पिता के वीर पुत्र हो, निर्भयता का पथ चुनना । कैसा अच्छा शोभित होगा, रत्नजटित सिंहासन पर, अपना यश - परिमल फैलाना, प्रजा प्रेम से पालन कर।" बालक के मन पर माता की शिक्षा स्थायी होती है, स्नेह - सिक्त मधु वचनावलियाँ जीवन का मल धोती हैं। कच्चा घट है शिशु, मन चाहा रूप - विरूप बना लीजे, कायर, वीर, मूर्ख या पण्डित, दुर्जन, या सज्जन कीजे । हन्त ! आज की माताएँ सन्तति का ध्यान न रखती हैं, कोमल मन में दुर्भावों का जहर हलाहल भरती हैं। हाँ तो हरिश्चन्द्र यह मंजुल दृश्य देख अति अकुलाए, भावी कष्ट - चित्र से आंसू आँखों बीच उमड़ आए। मन ही मन में कहा--"प्रिये ! तू किस भ्रमणा में भूली है ? क्या रोहित के लिए प्रेम में बैठी फूली - फूली है ? आज तुम्हारा पति, रोहित का हा ! सर्वस्व लुटा आया, पता नहीं क्या तुम्हें, भूप से बस कंगाल बना आया।" सहसा दृष्टि पड़ी रानी की शीघ्र हास्य उछला आकर, उर - विनोद के लिए पुत्र से रानी बोली मुसका कर ।
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