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सत्य हरिश्चन्द्र
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राज - महली राज वधू तुम, कमल-पुष्प-सा कोमल तन, सुचिर गोद में पली सुखा से होगा कष्ट - सहन ?" "प्राणेश्वर ! क्या दुःख की चिन्ता?हम भी क्षाना वाला हैं, पुष्प - सूकोमल राजमहल में, बाहर वज्र - कराला ह । सुख - दुःख मानव तन पर आते, जाते समय - समय पर हैं, कभी पुष्प की मृदु कलिका पर, कभी कुटिल कण्टक पर हैं। भाग्य पलट जब जाता है, तो जंगल महल बराबर है, सहन सभी कुछ करना होता, तुल्य निरादर - आदर है । मखमल के गद्दों के ऊपर भी जिनको उन्मन देखा, समय पड़े पर कांटों में भी उनका खुश जीवन देखा। खाने की क्या बात, आप भी रूखा = सूखा खाएँगे, सच कहती हूँ दासी को भी, उसमें ही खुश पाएँगे !"
"तारा तुम भावुक हो, फलतः मधुर भावना रखती हो, किन्तु समय की जटिल समस्याओं का ध्यान न रखती हो ।
क्षत्रिय बाला हो तुम से दृढ़ साहस की कुछ आशा है, किन्तु उग्र अति साहस की तो आशा नहीं, दुराशा है। पति होने के नाते तुमको भामिनि कष्ट नहीं दूंगा, कष्ट सहो मेरी आँखों के आगे, कैसे सह लगा ? पथ का भिक्षुक आज बना हूँ, ऋण का भार लदा शिर पर, नहीं पता कब और कहाँ पर, खानी हैं क्या - क्या ठोकर ! भद्र ! मेरे पीछे - पीछे, कहाँ - कहाँ तुम जाओगी ? कौशल की रानी ! अपने को, कहाँ कहाँ ठुकराओगी ?"
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