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सत्य हरिश्चन्द्र
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किसी तरह भी हो, सबा ने राज्य दिया है कौशिक को, बतलाएँ, फिर क्या हक हमको, बुरा बताएं कौशिक को ।
पाँच-सात सज्जन मिलकर हम, कौशिक ऋषि को समझाएँ, संभव है कुछ विकट ग्रन्थियाँ, उलझी हुईं सुलझ जाएँ ।”
हुए एक मत सब जन इस पर बना शीघ्र प्रतिनिधि मंडल, योग्य, चतुर, समयज्ञ, अभय, विश्वासपात्र, जनप्रिय, निश्छल ।
राज्य सभा में पहुंचे प्रतिनिधि, किया शिष्टता - युत वन्दन, नम्र भाव से हाथ जोड़ कर । किए प्रकट मन के स्पन्दन ।
"भगवन् ! आज अचानक कैसा, यह परिवर्तन आया है ? क्या झंझट है ? समझ न सकते, शोक नगर में छाया है ।
आप तपोधन त्यागी ऋषि हैं, राज्य प्राप्त कर क्या लेंगे ? त्याग दिया जब निजी राज्य, फिर क्यों अन्यत दखल देंगे ।"
" रहने दो बस उपदेशों की, व्यर्थ लगाते क्यों झड़ियाँ, तुम्हें सत्य का पता न समझो, पहले घटना की कड़ियाँ ।
मुझे राज्य की क्या इच्छा ? खुद मैंने अपना ठुकराया, क्या समझा ? इस तुच्छ राज्य पर कौशिक का मन ललचाया ।
हरिश्चन्द्र है मूर्ख, स्वयं कृत, उसकी ही सारी भंभट, शाप - बद्ध सुर - बालाओं को छोड़, व्यर्थ ही की खटपट ।
उपालंभ में देने आया, वह उलटा मुझ से अकड़ा, अपराधों की स्वीकृति कैसी ? झगड़े का उत्पथ पकड़ा ।
राज - धर्म का झूठा हठ कर, राज्य - दान भी दिया मुझे दान दिया क्या, शोर मचाकर अपमानित अति किया मुझे।"
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