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प्रजा - प्रेम
राज्य
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दान की बात का मचा नगर में शार, उमड़ पड़ा जनसिन्धु तब राजसभा की ओर । प्रजा दुःख में दुखी, सौख्य में सुखी भूप यदि होता है, हृदय प्रजा का राजा के प्रति फिर वैसा ही होता है । सत्यनिष्ठ, कर्तव्य - निष्ठ, धर्मज्ञ भूप के प्रति तन, धनसभी समर्पण करती जनता, प्रबल प्रेम का है बन्धन । हरिश्चन्द्र के प्रति कौशल की जनता थी अति स्नेहवती, दान की घटना सुन कर बनी दुःखिता शोकवती । गली और बाजारों में सर्वत्र यही बस चर्चा थी, कौशिक ऋषि के लिए एक धिक्कार शब्द की अर्चा थी । ऋध, क्षुब्ध जनता का सागर उबल रहा था भयकारी, राज्यसभा के दरवाजे पर भीड़ जुड़ी अति ही भारी ! सहस्र - सहस्र कण्ठों की वाणी गर्ज रही थी अतिभीषण, "देखो क्या, बस मार मार कर आज बना डालो ।” चूरण
राज्य
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देख दशा उन्मत्त प्रजा की, पुर- नेता आगे आए, सोचा कहीं क्षोभ के कारण, रक्तपात ही हो जाए ?
“मित्रों ! सोचो और विचारों, नहीं शीघ्रता हितकारी, हुल्लड़ - बाजी के कारण से, हो न व्यर्थ हत्या जारी । दुःसाहस से कभी न अपना, और नृपति का हित होगा, प्रत्युत भूपति रुष्ट बनेंगे, कार्य अगर अनुचित होगा ।
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