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सत्य हरिश्चन्द्र
"आप सन्त हैं, क्षमा - सिन्धु हैं, क्षमा, भाव रखें सब पर, क्या झंझट से लेना तुमको, वापस राज्य दीजिए फिर !"
"यह सब झठी लल्लो - चप्पो, राज्य न वापस हो सकता, .. कौशिक अपने ऋषि-पद का अभिमान न हर्गिज खो सकता।
राजा को समझा दो, अपना दोष क्यों न स्वीकार करे ? अभी राज्य लौटा देता हूँ, नहीं राज्य का लोभ अरे !" "राजा न्याय - निपुण हैं, हर्गिज दोष न कोई कर सकते, सत्य-निष्ठ हैं, अतः कभी क्यों मिथ्या स्वीकृति भर सकते।
अगर वस्तुतः कोई भी, अपराध धरापति से होता, स्पष्ट आप से क्षमा मांगते, यह झगड़ा न बढ़ा होता ?" "अरे सँभल कर बोलो तुम, क्या कहते हो मैं झूठा हूँ, मैं कौशिक हूँ नहीं जानते, भीषण होता रूठा हूँ। दोषी को निर्दोष बताते, तुम्हें न लज्जा आती है, धर्म-भ्रष्ट नृप के होते ही, प्रजा भ्रष्ट हो जाती है।" "खैर, हमें क्या, दोषी होंगे, वापस राज्य न लौटाएँ, किन्तु दक्षिणा के ऋण का तो प्रश्न शान्ति से सुलझाएं।" "अरे कह दिया तुमको, जाकर हठी भूप को समझा दो, एक दोष की स्वीकृति से, सब प्रश्न खत्म हैं बतला दो।" "दोष, दक्षिणा, ऋण की बातें भिन्न • भिन्न हैं आपस में, भगवन् ! ऋषि होकर भी भूले, अड़े विकट दुःसाहस में। सहस्र स्वर्ण की मुद्रा क्या हैं, लक्ष - कोटि हमसे लीजे, किन्तु प्रार्थना है भूपति को, ऋण से मुक्त बना दोजे ।
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