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सत्य हरिश्चन्द्र
हम ऋषियों की बातों में भी व्यर्थ टाँग उलझाता है, मोह - ग्रस्त हो आश्रम में भी निज अधिकार बताता है। सूर्य - वंश के सिंहासन पर तुझे बैठना योग्य नहीं, राज - भार दे अन्य किसी को भोग भाग्य के क्लेश कहीं ?"
"भगवन् ! आप सन्त हैं मन में जो भी आए वह कहिए, किन्तु भूप है दोषी केवल इसी भ्रान्ति में मत रहिए । मैंने तो कर्तव्य दया - वश दुखियों का दुख दूर किया, आप बताएँ, और अप्सराओं से क्या कुछ स्वार्थ लिया ?
क्या करुणा का मंगल - पथ है अपराधों की गणना में ? क्या सुनता हूँ, समझ न सकता, फँसे आप किस भ्रमणा में ? अगर वस्तुतः दोषी होता, भला अप्सरा क्यों छुटती ? तप - बल द्वारा बँधी - बँधी ही जीवन भर दुःख में घुटती। जब कि दोष ही नहीं, प्रश्न फिर स्वीकृति का कैसे आता ? व्यर्थ करू 'हाँ' खुश करने को ढंग न यह मुझको भाता। हाँ, अपराध सिद्ध यदि कर दें, पल - भर में स्वीकृत होगा, उचित दण्ड के लिए सर्वथा यह मस्तक अवनत होगा। पंचों - द्वारा निर्णय झट-पट क्यों न करालें झगड़े का, जो वे कह दें शिर - माथे पर, काम नहीं कुछ रगड़े का। अगर बता दें मुझ को दोषी, राज - सिंहासन तज दूंगा, योग्य व्यक्ति को कर अर्पण मैं सीधा वन का पथ लूगा ।" दुराग्रही जन सदा सर्वथा अपने ही हठ पर अड़ते, न्याय और अन्याय भुलाकर निन्द्य कदाग्रह पर लड़ते !
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