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सत्य हरिश्चन्द्र
"प्रभो ! आपका हरिश्चन्द्र क्या मुफ्त दक्षिणा लाएगा ?
एक- एक कौड़ी तक अपने
बल से
स्वयं कमाएगा !
सूर्य वंश की गरिमा को अक्षुण्ण सर्वथा रखूंगा, आप रहें निश्चिन्त दक्षिणा स्वयं कमा कर ही दूँगा ।"
"अच्छा तो बस आज रहो, कल तुमको चल देना होगा, रानी - सुत को संग में लेकर कौशल तज देना होगा ।"
"अच्छा, भगवन् ! नमस्कार है, आज्ञा दीजे, चलता हूँ, यात्रा की, आज्ञानुसार अब शीघ्र व्यवस्था करता हूँ ।
भ्रमवश यदि अपराध हुआ हो, क्षमा दास को करिएगा, कभी - कभी निज हृदय कमल में याद दास को करिएगा, हाँ प्रभु ! एक प्रार्थना मेरी खास तौर से चरणों में, अवध - राज्य की प्रजा आपके बहे प्रेम के झरनों में ।
अब तक सुख में रही प्रजा है, पाकर मधुर मृदुल शासन, यही आपसे भी आशा है, सुत
सम करें प्रजा
पालन ।
कौशल के जन भद्र - सरल हैं, करुणा सागर ! करुणा करना,
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ध्यान न भूलों पर देना, व्यर्थ भस्म मत कर देना । विश्वामित्र उबल कर बोले - " हमको भी शिक्षा देता ? शर्म नहीं आती है तुझको, तू ही क्या जग में नेता ?
मैं राजा हूँ, अतः जीर्ण शीर्ण तव शासन
तूने किस बिरते पर मुझको, समझा मूरख अज्ञानी, नहीं जानता आज विश्व में, गूंज रही मेरी वाणी !
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राज्य का शासन, अथ - इति बदलूंगा, विधि का चिह्न नहीं रहने दूँगा ।
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