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सत्य हरिश्चन्द्र
हरिश्चन्द्र कुछ स्तब्ध हुए तो कौशिक की वाणी मचली ? " देखा, आखिर अन्तर में का, रंग निखर आया असली ।
दत्त दान में से देने का
त्याग राज्य का कर देने पर,
निज तन, सुत ओ' रानी के अतिरिक्त न तेरा कुछ भी है, आभूषण, धन, जन, सेना पर स्वत्व नहीं अणुभर भी है ।
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सूर्य वंश में जन्म लिया, फिर भी अज्ञान बड़ा भारी, आदि देव श्री ऋषभ देव की कीर्ति कलंकित कर डारी ।
कैसा
कहो और
अभिनव ढोंग रचा ?
क्या शेष बचा ?
व्यर्थ मुक्त की सुर बालाएँ, फिर अपराध नहीं माना, भ्रान्ति पुनः की राज्य दान कर, बना दान का दीवाना | भूल, भूल, फिर भूल भयंकर भूल दक्षिणा लाने में, कैसी जड़ता दिखलाई है, दत्त कोष हथियाने में ।
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तेरा यह अज्ञान देख कर, स्वीकृत करले दोष कि बिगड़ी बात
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वीर पुरुष अपवाणी सुन कर क्रोध नहीं मन में लाते, अविचल शांत, प्रशांत सिन्धु से, नहीं क्षुब्धता दिखलाते ।
करुणा उमड़ी आती है, अभी बन जाती है ।
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शत शत विद्यत पड़े सिंधु में, क्या प्रभाव दिखलाएँगी ? अतल जलधि में सदाकाल के, लिए शान्त हो जाएँगी ।
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कौशिक ऋषि कटु वाणी कहकर क्रोध वह्नि भड़काते हैं, किन्तु भूप कितनी ममता से स्नेह - मधुर बतलाते हैं ?
"ठीक कहा है भगवन् ! अब मैं नहीं कोष का स्वामी है, फिर भी सहस स्वर्ण की मुद्रा दूँगा, सच का हामी हूँ ।"
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