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________________ ६० सत्य हरिश्चन्द्र हरिश्चन्द्र कुछ स्तब्ध हुए तो कौशिक की वाणी मचली ? " देखा, आखिर अन्तर में का, रंग निखर आया असली । दत्त दान में से देने का त्याग राज्य का कर देने पर, निज तन, सुत ओ' रानी के अतिरिक्त न तेरा कुछ भी है, आभूषण, धन, जन, सेना पर स्वत्व नहीं अणुभर भी है । - सूर्य वंश में जन्म लिया, फिर भी अज्ञान बड़ा भारी, आदि देव श्री ऋषभ देव की कीर्ति कलंकित कर डारी । कैसा कहो और अभिनव ढोंग रचा ? क्या शेष बचा ? व्यर्थ मुक्त की सुर बालाएँ, फिर अपराध नहीं माना, भ्रान्ति पुनः की राज्य दान कर, बना दान का दीवाना | भूल, भूल, फिर भूल भयंकर भूल दक्षिणा लाने में, कैसी जड़ता दिखलाई है, दत्त कोष हथियाने में । " तेरा यह अज्ञान देख कर, स्वीकृत करले दोष कि बिगड़ी बात - - वीर पुरुष अपवाणी सुन कर क्रोध नहीं मन में लाते, अविचल शांत, प्रशांत सिन्धु से, नहीं क्षुब्धता दिखलाते । करुणा उमड़ी आती है, अभी बन जाती है । 1" शत शत विद्यत पड़े सिंधु में, क्या प्रभाव दिखलाएँगी ? अतल जलधि में सदाकाल के, लिए शान्त हो जाएँगी । Jain Education International कौशिक ऋषि कटु वाणी कहकर क्रोध वह्नि भड़काते हैं, किन्तु भूप कितनी ममता से स्नेह - मधुर बतलाते हैं ? "ठीक कहा है भगवन् ! अब मैं नहीं कोष का स्वामी है, फिर भी सहस स्वर्ण की मुद्रा दूँगा, सच का हामी हूँ ।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
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